इन्द्रप्रस्थ अध्ययन केंद्र अध्ययन जीवन की सतत प्रक्रिया है और जीवंत सोच का प्रमाण भी। इन्द्रप्रस्थ अध्ययन केंद्र समाज का एक ऐसा मंच है, जिसमें सामाजिक सरोकारों के प्रति संवेदनशील हर वर्ग और वयमान के बुद्धिजीवी, शिक्षाविद्, प्रशासक, शोध-छात्र, व्यावसायिक, उद्यमी, कर्मिक आदि अपने समय और युग के जूझते सवालों पर विचार करते हैं। केंद्र में व्यापक समाज की सोच से सीधे-सीधे जुड़ने वाले बिन्दुओं को अध्ययन और चिंतन का विषय बनाया जाता है। ये वो सवाल होते है जिनको ले कर समाज की सोच मैं अनिश्चय, भ्रम और असमंजस बना रहता है।
हमारा आज तरह तरह के सवालों, दबावों और तकाजों से घिरा हुआ है। इसमें एक ओर विश्वग्याम की महत्त्वाकांक्षाओं से जूझते युवा हैं, विश्व मानचित्र में अपनी प्रमाणिक उपस्थिति दर्ज कराने वाली प्रतिभा, क्षमता और प्रशासन व्यवस्था है तो दूसरी ओर परिवार की ऊष्मा को तरसता शैशव और बुढ़ापा, अपनी जगह तलाशती कमजोर और आधी आबादी, तरह तरह के मानसिक दबावों में टूटती-छीजती नई पीढ़ी और इन सब में गुम होती हमारी, आपकी, समाज की , या कहें कि मानव की पहचान है। यह स्थिति हम सब की चिंता का विषय है। कोई भी जिम्मेदार नागरिक अपनी भावी पीढ़ी को अकेलेपन के अवसाद में गुम होते नहीं देख सकता। हम अनुभव करते हैं कि समाज के संपन्न से लेकर कमजोर वर्ग, अपनी-अपनी कक्षाओं में ये सारे दबाव-तनाव झेल रहा है। किशोरों –युवाओं में बढ़ती आपराधिक आत्मघाती प्रवृत्ति से भी हम अनजान बने नहीं रह सकते। इन्द्रप्रस्थ अध्ययन केन्द्र ऐसे सवालों तथा इनके कारणों को समझ इनके उत्तर पाने की कोशिश करता है।
आज का समाज आर्थिक, मानसिक और व्यवहार संबंधी विसंगतियों से जूझ रहा है। आर्थिक सोच आत्मीयता पर हावी हो गई है, व्यक्ति मात्र की इच्छाएँ प्रबल होती जा रही हैं और क्षमता रंगीन सपनों में अपनी कुट्वत की सीमा से अनजान शिथिल-अक्षम बनती जा रही है, तो परिणाम विघटन के अतिरिक्त और क्या हो सकता है? अपराध और अवसाद ने समाज की खुशी को सोख लिया है उसके तन-मन को रोगी बना दिया है। तृष्णाओं की मजबूती और आत्मविश्वास की कमी, अनास्था, असंतोष, आक्रोश, निराशा जैसे नकारात्मक भाव युग के स्थायी भाव बनते जा रहे हैं। इस नकारात्मकता से साबका तो सबका पड़ता रहता है लेकिन सवाल यह है कि इनकी आलोचना के इलावा कोई क्या करता हैं ! इन्द्रप्रस्थ अध्ययन केन्द्र इस का अध्ययन करता है और स्थिति को बदलने के कारगर संभावित मार्ग तलाशने का कार्य करता है। हम सभी अनुभव करते हैं कि धर्म के नाम पर समूचे विश्व का वैज्ञानिक सोच वाला समाज भी एकजुट हो जाता है। इसलिए हमने धर्म और धर्मिकता के संदर्भ में हिन्दू धर्म की व्यवहारिकता के विषय का अध्ययन किया। धर्म के वास्तविक स्वरूप और उसमें व्याप्त विकृतियों, मनुष्य के स्वरूप, संस्कारों के विज्ञान और उनकी युगीन उपयोगिता का चिन्तन किया। हमारे अध्ययन का दूसरा विषय शिक्षा रहा, क्योंकि परिवार और पारिवारिक परिवेश व्यक्तित्व को आकार देने वाली प्रथम आधार शिला बनते है और इस प्रथम परिवेश के बाद व्यक्तित्व को सक्षम और सही आकार देने में शिक्षा की भूमिका गंभीर महत्व की हैं।
हम यह भी जानते हैं कि हमारी गुरुकुल वाली शिक्षा प्रणाली जिसमें शिक्षार्थी को उसके गुण-रूचि-क्षमता- परिवार परम्परा के अनुरूप सक्षम और समाजोपयोगी व्यक्तित्व मिलता था और हम यह भी अच्छी तरह से जानते हैं कि आज के परिवेश और पर्यावरण में गुरुकुल की परम्परागत शिक्षा पद्धति संभव नही है और न ही इसके लिये सबके लिये छात्रावासों की सुविधा सुलभ कराना भी दुराशा मात्र है ऐसे में परिवार शिक्षा समूह शिक्षा, समुदाय शिक्षा, सृष्टि-शिक्षा, कला-कौशल , यंत्र-तंत्र, विज्ञान , आचार-विचार-व्यवहार जैसे शिक्षा संस्थान औपचारिक शिक्षा के साथ मिल कर व्यक्तित्व के स्वस्थ सामाजिक स्वरूप के विकास के आश्वासन सिद्ध हो सकते है। हाँ, यह सच है कि इसके लिये माता-पिता तथा इतर सामाजिक सांस्कृतिक संस्थानों को अपनी सक्रिरय भूमिका को समझाना और स्वीकारना होगा।
इन्द्रप्रस्थ अध्ययन केन्द्र ने समाज और राजनीति की बुनावट में उभरने वाले ‘दलित‘ विमर्श को भी समझने का अध्ययन कार्य शुरू किया। इस विषय के साथ जुडैं तथ्यों -सत्यों को पहचान कर इस मुददे के सरमायादारों की सोच को थामने का प्रयत्न भी किया। इस से जुडे वाद-विवाद- प्रतिवाद आदि के भ्रम जाल में निहित हितवाद और महत्त्वाकंःशक्षा की भूमिका को भी समझा। निकट भविष्य में यह विषय भी खुले मंच पर लाया जा सकता है। विद्यमान विचार मंच एक ऐसे व्यूह को भेदने का उपक्रम है जिसके व्यूह होने का हमें अहसास ही नहीं हो पाया था। यह एक ऐसा सम्मोहन था जिसके व्यामोह में विश्व के विकसित से विकसित, समृद्ध-सम्पन्न, विज्ञान -तर्क बुद्धि के गर्वीले दिमाग भी उलझ गये, पर जल्दी ही वे इसके खतरों से सावधान हो गये और इससे अपना पिंड छुड़ा लिया। शायद इन महाबल्ियों को इससे पल्ला झाड़ते देख हमने भी शासन-उदयम के क्षेत्र में इसकी पकड़ से अपना हाथ छुड़ा लिया पर कहावत है न कि ‘मैने तो कम्बल छोड़ दिया पर कम्बल मुझे नहीं छोड़ रहा‘ ! इस नव्य साम्यवाद की पकड़ और जकड़ पर एक बेबाक देसी सोच से हम जागरूक बनेंगे इस विश्वास के साथ हम आप सबका स्वागत करते हैं और धन्यवाद ज्ञापन भी।
इन्द्रप्रस्थ अध्ययन केन्द्र समय और स्थितियाँ व्यतीत की देन अवश्य होतीं है और हर युग अपने वर्तमान को अपने सपनों का आकार देना चाहता है। यह कोई सरल काम नहीं होता।भारत के संदर्भ में लोकतंत्र की स्थापना के बाद से यह युग निर्माण का काम तेजी से होने लगा। जब तक देश मंछे विदेशी शासन तंत्र रहा तब तक सामान्य नागरिकों की आवाज अरण्य रोदन ही रही उन आवाजों में किसी चमत्कारी शक्तियों से अपनी दशा-दुदर्शी सुधार की अनुनय- विनय रहती थी या शासक वर्ग की भंडैती! उससे पहले के राजतंत्र की नगर-परिषद या जन-परिषद या राजाओं का वेष बदल कर प्रशासन व्यवस्था ओर जन जीवन की स्थिति का जायजा लेना तो परिकथा जैसी लगती है। जो भी जैसा रहा वह इतिहास अवश्य बना और हम उसे अपने दिलो दिमाग से नोच फैंकना चाहे तब भी वह हमारे अचेतन तक पैठा हुआ है और हमारे आज को गुप-चुप गति देता रहता है।
हम आज जिस इक्कीसवीं सदी में साँस ले रहे हैं उसका आकार उससे पहले की सदियों ने ही उकेरा था।हमने बीसवीं सदी में विज्ञानवाद के आग्रह के परिणाम स्वरूप एक शिक्षित मध्यवर्ग को उभरते देखाथा। यह मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी अंग्रेजी मानसिकता से सराबोर जागरूकता के विदेशी चश्में से अपने आप को देखने-परखने में ही अपनी क्षमता-प्रतिभा की सार्थकता खोज रहा था।परिस्थिति यों के निर्मम आघातों से अवसन्न मानसिकता स्वतुत्र रूप से अपने हालात को भी नहीं देख पा रही थी।अपने समय के परिवेष के विद्रूप और अव्यवस्थाओ को देखने के लिए भारत के इन नव बुद्धिमानों ने पश्चिम के माक़्स वादी चश्में को अपनी आँखों पर चढा लिया और बस फिर क्या था दवन्दवात्मकता जो धमासान छिडा उसमें संघर्ष संधर्ष और विध्वंस ही जैसे युग का प्रचलित और प्रिय मुहावरा बन गाया। दस मानसिकता ने यह नहीं सोचा कि कया तोडना है और कैसे तोडना है।अब तो असंतोष और महत्वाकांक्षाओं के नित्य नए आयाम खुलने लगे। विसंगतियों का साधारण वर्ग केवल इन आंदोलनों की भीड का उपकरण मात्र बन कर रह गया। भीड तंत्र के आयोजकों ने सम्मोहन के नए-नए मंत्तर मारने शुरू कर दिए।
स्वाभिमान पर्व- दलित चेतना ईक्कीसवीं सदी के अभी दो दशक भी नहीं बीतें कि देश के पूर्व,पश्चिम उत्तर,दक्षिण यानि देश के हर कोने से मांगों की आवाजें कभी मौन जुलूस के रूप् में तो कभी आक्रामक हल््ले या फिर धरती कैंपाती चीत्कारों के रूप् में दिशाओं को कोलाहल से भरती दिखती हैं।अपनी सधी सी ठहरी सी जिन्दगी में शांति पूर्वक अपनी गृहस्थी को सुस्थिरता देने वाला सरल सा आम नागरिक सहसा दिशाओं को गुंजाने वाले शोर से सहम जाता है और समझने की कोशिश करता है कि यह सब क्या है और क्यों है। उसके सामने मांगों की फेहरिस्तों की लंबी- लंबी सूचियाँ लहरा दी जाती है और वह सोचने लगता हैक्या मांगने से सब कुछ मित्र जाता है। उसने से तो सुना और पढा था कि ‘बिन मांगे मोती मिले मांबे मिले न भीख‘!पाठशाला के गुरू जी ने भी समझाया था कि‘ मांगने भर से कुछ नहीं मिलता। मांगने से तो हम अपना आत्म सम्मान खो देते हैं और अपनी ही नजरों में गिर जाते हैं।हम जो कुछ चाहते हैं और जैसा चाहते हैं वैसी योग्यता हम मंणे जरूर होनी चाहिए।